लो फिर आयी , सताने मुझे
तनहाई कि चादर देने आयी है
हाय ये रात बादलोसे उतरके
झुठे सपने दिखाने आयी है
हर बार इस राह पर
यादोंके काफिलेसे गुजरते है
इनमे होता था एक शहर
अब वे मारे मारे फिरते है
मैं जितना भागता हुं
उतनीही पास वोह आती है
मैं डर भी जाऊ कभी
तोः वोह भी घबराती है
थककर सो जाता हुं मैं
रात खुदमे समा लेती है
बिखरे हुवे सपनोमे
यांदे उलझसी जाती है
कैद सा हो जाता हुं
वक़्त ठहरसा जाता है
नींद गहाराने लागती है
तभी सवेरा हो जाता है
दिन के शोर मैं वोह यादे
ना जाने कहां गुम हो जाती है
इसी सोच मैं होता हुं
और फिर रात हो जाती है !