गुजरा भी तो क्या गुजरा यह दिन
सतानेवाली रात भी महबूबा लग रही है
कोई क्या समझे मेरे दिल पे क्या गुजरी है
धुप में जलके राख होती तो बेहतर होता
हर एक ख़्वाहिश रूबरू सुलग रही है
कुछ दिन ने साथ दिया होता तो बात बनती
शाम होने की फ़िराक मैं है रात
कल के माँद पड़े सितरोंको समेटे जग रही है