कभी इधर कभी उधर फिरते हैं दरबदर कभी शाखोंपर बेक़रार यह जुगनू फ़लकसे उतरे कई सितारे जैसे न जाने क्या ढूंढ़ते हैं इन तनहा राहोंपर बेक़रार यह जुगनू खुदसे ही रौशन थोडे बेबाक़ यह जिंदा होते हैं रातमें फिर बिगड़ते अंधेरोपर बेक़रार यह जुगनू मैं तो थक चुका हूँ कलम रख चुका हूँ फिर क्यों…
Author: Rohit Bapat
सजा
हर एक जुर्म की हर एक सजा होती है जिंदगीमें शुरू जिंदगीमें ख़त्म होती है हम तो वह जुर्म ए अझीम कर बैठे जिस्म मर जाते हैं पर रूह ना फना होती है ! हमें अफ़सोस नहीं इश्कमे जो मरमिटे हम कीमतही राह ए इश्ककी की वफ़ा होती है .. कभी मिलनाही हुवा उनका किसी…
नाजूकसी है यह जिंदगी
दो पल की, यह बात है कभी दिन, तो कभी रात है तू छोड़ ना, निचोड़ ना नाजूकसी है यह जिंदगी बेताल तू, बेबाक़ तू फिरभी हरम से, पाक तू तू तोड़ ना, मरोड़ ना नाजूकसी है यह जिंदगी
जबभी हवा चले
जबभी हवा चले, तेरी औरसे खुशबु बहके आए, बड़ी दूरसे तेरी यादकी चाँदनीजो, मेरी रातभी ओढ़ले और चाँद भी मुस्कुराए बड़े प्यारसे जबभी हवा चले .. अब इतने दिन भी गुजर गए इतने रुत भी बदल गए थकती नहीं यह आँखे इंतज़ारसे जबभी हवा चले ..
राही सुनले
दिल तो एक मलंग है बादलोंका पलंग है सींचो सपने, चाहे जितने ना मिटनेवाला रंग है उड़ान भर आसमानसे भी आगे तक मुडके ना देख यह ना डोरिसे बंधा पतंग है अब ना बहा तू यह पानी मिलता नासिबसे रोनेवालोंपे यह दुनिया जरासी तंग है ओ राही सुनले तू ढूंढ ना किसी और को करम…
ए बेवफ़ा
ए बेवफ़ा क्या खूब बहाना बनाया तुने बस थोड़ीसी देर हो गयीथी मुझे आनेमें तूने मुड़कर भी न देखा मुझे है यकीन इस कदर जल्दी थी तुझे यूँ दूर जानेमें मेरा कसूर क्या जो वक़्त ने ठोकर दी कुछ पल ही लगा करते थे समझानेमें तुझे ज़ालिम कहूँ यहभी खुदगर्जी होगी मजलूम भी तो रहने…
रौशनी
क्यों कोई रोए किसीके लिए ? हर परवाना जानता है शबनमसे मुहब्बत का नतीज़ा ! लौट जाओ दोस्तों यह रौशनी कहीं राख ना कर जाए तुम्हेंभी
गुमनाम
आँखोमें बाउम्मीद बेकरारी जो है , सूख जाए अगर तो फिरसे नम हो जाएंगे.. पानी तो पानी है छलके तो आंसू , यूँही पी लूँ तो सुलखते गम हो जाएंगे.. हर जख्म की कहानी अधूरी है , आदत है खुदको सहलाते हम सो जाएंगे.. बेवफाई का सबब आँहोंसे ना देना , आँधी चली तो कुछ…
पांढरे फूल
संगमाच्या नशिबी होत्या देवळांच्या अनंत राशी अश्रूत दिसे कोणाला गंगा वाळूत दिसते काशी घरटेही अमर कोणाचे त्याचाही वैरी वारा ते गळले तरी निरंतर चिमणीही शोधते चारा पापण्यांवर तुझ्या कधीचा तो दाटून आहे जलधी तू भिजवून टाक स्वतःला ऋतू बदलण्या आधी एकेक अक्षरासाठी वेड्या रडशील किती असाच प्रत्येक नव्या पानाला फांदीचा असतो जाच स्वप्नातल्या बांध खांबांना…
बेमुदत !
तुम्ही आणि मी बोलून काय होणार ? जोरजोरात रडण्यावर कोणाचीही बंदी नाही म्हणून तेवढंच करता येतंय … बेमुदत ! कुणाकुणाच्या नाड्या कुठे अडकल्यात ? तुमच्या आणि माझ्या नरड्या आवळल्यात म्हणून मरता मरता जगता येतंय … बेमुदत ! ज्याला त्याला स्वातंत्र्य आहे नव्हे हक्क आहे संप करण्याचा, तोही … बेमुदत ! तुम्हाला आणि मला काही करता…